जैन धर्म : जैन धर्म के तीर्थंकर : महावीर स्वामी :-
जैन धर्म : भारत का एक प्राचीन धर्म
जैन धर्म के तीर्थंकर : – जैन धर्म के 24 तीर्थंकर हुए है
महावीर स्वामी : – जैन धर्म के 24 वें तीर्थंकर
- जैन धर्म भी भारत के प्राचीन धर्मो मे से एक धर्म है, जैन दार्शनिक परम्परा वैदिक सभ्यता के समकालीन ही एक आंदोलन था। जैन शब्द जिन’ शब्द से बना है, जिसका शाब्दिक अर्थ विजेता होता है। जिन के अनुयायी जैन कहलाये, जैन धर्म के अन्तर्गत ‘ 24 तीर्थंकर हुए जिनमें सबसे पहले ऋषभदेव थे व अंतिम महावीर स्वामी थे, जैन धर्म के दो प्रमुख सम्प्रदाय है – दिगम्बर व श्वेतांबर‘। जैनियों के धार्मिक स्थल को जिनालय के नाम से जानते हैं। इस दौरान राजनीतिक, आर्थिक, धार्मिक व सामाजिक परिवर्तन हुए। जो इस धर्म के उदय कारण बने। भदबाहु के कल्पसूत्र के अन्तर्गत जैन धर्म के प्रारंभिक इतिहास के बारे में जानकारी प्राप्त होती है।
- जैन धर्म के प्रथम तीर्थकर – ऋषभदेव / आदिनाथ
- जैन अनुश्रुतियों के अनुसार जैनियों का प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव को माना जाता हैं। ऋषभदेव का जन्म इक्ष्वाकु वंश मे माना गया। जैन ग्रन्थों में इन्हें मानव सभ्यता का जनक भी माना गया।
- जैन धर्म के 23 वें तीर्थंकर – पार्श्वनाथ
- पार्श्वनाथ का काल महावीर से 250 ई.पू. का माना। पार्श्वनाथ को जैन धर्म का ऐतिहासिक संस्थापक माना गया।
- पार्श्वनाथ को 82 दिन की कठोर तपस्या के बाद 83वें दिन ज्ञान की प्राप्ति हुई। इनकी ज्ञान प्राप्ति के बारे में जानकारी बिजौलिया अभिलेख (भीलवाड़ा) से मिलती है। पार्श्वनाथ को निगठनाथ के नाम से भी जानते थे
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जैन धर्म के 24 तीर्थंकर
24 तीर्थंकरों के नाम | प्रतीक चिन्ह |
1.ऋषभदेव | बैल |
2.अजितनाथ | हाथी |
3.सम्भवनाथ | घोड़ा |
4.अभिनंदननाथ | कणी |
5.सुमितनाथ | सारस |
6. पद्मप्रभु | कमल |
7.सुपार्श्वनाथ | स्वास्तिक |
8.चन्द्रप्रभु | चंद्र |
9.सुविधिनाथ | मकर |
10.शीतलनाथ | श्रीवत्स |
11.श्रेयांसनाथ | गेंडा |
12.वासुपूज्यनाथ | भैंस |
13.विमलनाथ | सूकर |
14.अनंतनाथ | बाज |
15.धर्मनाथ | वज्र |
16.शांतिनाथ | हिरण |
17.कुंथुनाथ | बकरा |
18.अरनाथ | नंधावर्त |
19.मल्लिनाथ | पिचर कलश |
20.मुनिसुव्रत | कछवा |
21.नेमिनाथ | नीलकमल |
22.अरिष्टनेमि | शंख |
23.पार्श्वनाथ | सर्प |
24.महावीर स्वामी | सिंह |
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महावीर स्वामी का जीवन परिचय
- जन्म 540 ई.पू.
- माता – त्रिशला
- पिता – सिद्धार्थ
- जन्मस्थान – वैशाली के समीप कुण्डग्राम
- पत्नी – यशोदा
- जाति-क्षत्रिय
- तपस्या – 12 वर्ष
- बचपन का नाम – वर्धमान
- कुल – ज्ञात्रक कुल
- ज्ञान प्राप्ति का स्थान व वृक्ष – ऋजुपालिक व साल का वृक्ष
- मृत्यु – पावा पुरी
- जैनियों के 24 वें तीर्थकर महावीर स्वामी जैन धर्म के वास्तविक संस्थापक माने गये हैं। इन्होंने छटी शताब्दी ई.पू. में जैन आंदोलन का प्रवर्तन किया। इनकी पत्नी यशोदा से जन्म लेने वाली पुत्री प्रियदर्शना का विवाह जामालि (महावीर स्वामी का प्रथम शिष्य) नामक क्षत्रिय से हुआ।
- महावीर स्वामी को ज्ञान की प्राप्ती
- बारह वर्ष की कठोर तपस्या के बाद 42 वर्ष की उम्र में महावीर को जृम्भिकग्राम के निकट उज्जुवालिया (ऋजुपालिका) नदी के किनारे साल के वृक्ष के नीचे कैवल्य ज्ञान प्राप्त किया
- वर्धमान को केवल्य ज्ञान प्राप्ति के बाद मिले नाम
- केवलिन – ज्ञान प्राप्ति के कारण उन्हें केवलिन कहा।
- जिन व महावीर – इन्द्रियों के जीतने के कारण जिन व महावीर कहलाये।
- निर्ग्रन्थ – बन्धनों से मुक्त होने के कारण निर्ग्रन्थ कहलाये।
- अर्हत – योग्यतम होने के कारण अर्हत कहलाये।
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जैन धर्म के त्रिरत्न
- इनका मुख्य उद्देश्य मुक्ति की प्राप्ति है। जिसके लिए कोई अनुष्ठान की आवश्यकता नही होती। कर्मफल से मुक्ति के लिए त्रिरत्न का अनुशीलन आवश्यक है। जो निम्न प्रकार
- 1.सम्यक दर्शन – जैन तीर्थकरों एवं उनके उपदेशों में पूरी आस्था
- 2.सम्यक चरित्र – मनुष्य का समस्त इन्द्रिय विषयों में अनासक्त होना, उदासीन होना, सम दुःख – सुख होना ही सम्यक आचरण हैं।
- 3.सम्यक ज्ञान – जैन धर्म व उसके सिद्धान्तों का ज्ञान ही सम्यक ज्ञान हैं। जिसके पाँच रूप बताये है।
- मति – इन्द्रिय जनित ज्ञान
- श्रुति – श्रवण ज्ञान
- अवधि – दिव्य ज्ञान
- मन: पर्याय – अन्य व्यक्तियो के मन-मस्तिष्क का ज्ञान
- कैवल्य – पूर्ण ज्ञान निर्ग्रन्थ व जितेन्द्रियों से प्राप्त होने वाला ज्ञान
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जैन धर्म के सिद्धांत
- नास्तिक – ये वेदों को अपौरूषेय नहीं मानते व प्रमाणिक भी नहीं मानते। बौद्ध, चार्वाक, के साथ ही जैन धर्म भी नास्तिक माना जाता है।
- कर्म व पुनर्जन्म में विश्वास – जीव का जन्म व पुनर्जन्म होता है और ये सब कर्मों के प्रभाव से होता है।
- निवृत्ति मार्ग – सांसारिक लगाव ही दुःखों का मूल कारण है। इसमें सांसारिकता से दुर रहने के बारे में कहा।
- ईश्वर सृष्टि का रचयिता नहीं – जीव उपजीव से ही सृष्टि का निर्माण हुआ। अर्थात् दो तत्व जीव व अजीव जीव अनंत का ज्ञान शक्ति, प्रकाश व आनंद से युक्त है। इस कारण अपने आप मे पूर्ण है।
- बन्धन व मोक्ष – बन्धन व मोक्ष प्रक्रिया के सात तत्व माने है। जीव, पुद्रल, आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्धन व मोक्ष।
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जैन धर्म में दर्शन
- अनेकांतवाद – बहुरूपता का सिद्धांत
- स्यादवाद / सप्तभंगीनय -सापेक्षिता का सिद्धांत
- नववाद -आर्थिक दृष्टिकोण का सिद्धांत
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जैन धर्म के पंच महाव्रत
- अहिंसा – मन कर्म व वचन से किसी के प्रति हिंसा का भाव नहीं रखना
- सत्य – प्रत्येक व्यक्ति को हर परिस्थिति में सत्य बोलना चाहिए
- अस्तेय – चोरी नहीं करना
- अपरिगृह – संग्रह नही करना
- ब्रह्मचर्य – विषय वासनाओं से दूर रहना व उपर्युक्त चारों का पालन करना
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जैन धर्म की सभाएं
- 1.प्रथम जैन सभा – प्रथम जैन सभा का आयोजन चन्द्रगुप्त मौर्य के शासन काल में 300 ई.पू में पाटलिपुत्र में आयोजित हुई। इसमे ही जैन धर्म के प्रधान 12 अंगों का संकलन किया। यह सभा स्थूलभद्र व सम्भूति विजय नामक स्थाविरों की देख रेख में हुई।
- 2.द्वितीय जैन सभा – द्वितीय जैन सभा का आयोजन देवार्धि क्षमाश्रमण की देखरेख में गुजरात के वल्लभी नामक स्थान पर लगभग 513 ई. में सम्पन्न हुई। जिसमे धर्म ग्रन्थों का अंतिम संकलन कर उन्हें लिपिबद्ध किया।
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जैन धर्म का विभाजन
- महावीर स्वामी द्वारा संघ की स्थापना की गई। जिसमें महावीर स्वामी के साथ 11 अनुयायी थे जिन्हे गणधर कहा जाता था । महावीर स्वामी की मृत्यु के बाद इन गणधरों में मतभेद हुआ। व अलग-अलग मत बनने लगे, भद्रबाहु जो जैन धर्म को आगे बढ़ाने का प्रयास कर रहे थे। अपनी यात्रा के बाद जब वे लौटे तो जैन धर्म की परम्परा में बदलाव नजर आया व बदलावों का स्थूलभद्र नेतृत्व कर रहा था जो भद्रबाहु को स्वीकार नहीं था। चन्द्रगुप्त मौर्य के समयकाल में जैन धर्म का विभाजन दो संप्रदायों में हुआ।1.श्वेताम्बर 2.दिगम्बर
श्वेताम्बर | दिगम्बर |
1.श्वेताम्बर के संस्थापक स्थूलभद्र थे, जिन्होंने प्रथम जैन सभा की अध्यक्षता की । | 1.दिगम्बर के संस्थापक भद्रबाहु थे । |
2.जैन धर्म में समय के साथ परिवर्तन को स्वीकार किया । | 2.जैन धर्म में समय के साथ परिवर्तन को स्वीकार नहीं किया, जो परंपरा थी उसी पर स्थिर रहे । |
3.इसमें लोगो को वस्त्र पहनने की अनुमति मिली । | 3.इसमें अभी भी पहले की तरह पूर्णत: नग्न अवस्था में रहते थे। |
4.महावीर स्वामी की मूर्ति को भगवान के रूप में पूजा जाने लगा । | 4.इसमें महावीर स्वामी को सामान्य मनुष्य के रूप में मानते थे । |
5.स्त्रियों के लिए मोक्ष का द्वार खुला था । | 5.नग्न अवस्था में रहने के कारण मोक्ष का मार्ग संभव नहीं । |
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जैन धर्म में संथारा या सल्लेखना विधि क्या है
- जैन धर्म में मृत्यु को निकट जानकर व्यक्ति खुद खाना पीना त्याग देता है जिसे सल्लेखना प्रथा और इसे ही श्वेतांबर साधना पद्धति में संथारा कहते है। सल्लेखना शब्द का विच्छेद करने पर ‘सत्’ व ‘लेखना इस शब्द का अर्थ निकलकर आता हैं। जिसका शाब्दिक अर्थ है अच्छाई का लेखा-जोखा करना। जैन दर्शन में सल्लेखना उपवास द्वारा प्राणत्याग के सन्दर्भ में हैं। अर्थात् दुर्भिक्ष, वृद्धावस्था या रोग की स्थिति आ जाये व इनका प्रतिकार संभव न हो तो धर्म साधन के लिए सल्लेखना पूर्वक शरीर छोड़ने की ज्ञानियों ने प्रेरणा दी हैं।
- ई.पू. तीसरी सदी में सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य ने श्रावण बेलगोला (कर्नाटक) में सल्लेखना विधि द्वारा शरीर का त्याग किया।
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जैन धर्म के ग्रंथ व साहित्य
- जैन धर्म का प्रचार- प्रसार प्राकृत भाषा मे किया गया। लेकिन जैन धर्म के साहित्यों का अर्धमगधी भाषा में निर्माण इनसे ही हमें जैन धर्म के बारे में जानकारी मिलती
- 1. अंग – जैन धर्म का मुख्य ग्रंथ हैं। इसमें जैन धर्म के सिद्धान्तो नियमों के बारे मे बताया। इनकी संख्या 12 है।
- उपांग – जैन धर्म ग्रंथ के अंग को जानने के लिए उपांग को बनाया जिनकी संख्या भी 12 है।
- प्रकीर्ण- इनमें जैन धर्म ग्रंथो का विस्तार से विश्लेषण किया इनकी संख्या 10 हैं
- छेद सूत्र एवं मूल सूत्र – इनमें जैन धर्म के भिक्षु भिक्षुणियों के नियम व व्यवहार का विस्तार से वर्णन किया। जिनमें 6 छेदसूत्र 4 मूल सूत्र हैं।
- भगवती सूत्र – जैन तीर्थंकरों व महावीर स्वामी के जीवन चरित्र, व्यवहार के बारे में ज्ञान होता हैं। भगवती सूत्र के अन्तर्गत 16 महाजनपदों के बारे मे जानकारी मिलती है।
- कल्पसूत्र – भद्रबाहु द्वारा कल्पसूत्र की रचना की गई जो दिगम्बर संप्रदाय के संस्थापक थे
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जैन धर्म के पतन के कारण
- जैन धर्म में कठोर तपस्या के अन्तर्गत त्याग, वस्त्र का त्याग व्रत, अनशन आदि आते थे जो सामान्य गृहस्थी व्यक्ति के लिए सम्भव नहीं ।
- जैन धर्म के द्वार सभी धर्मो के व्यक्तियों के लिए खुले थे जो भी पतन का कारण बना।
- जैन धर्म का विभाजन (श्वेताम्बर व दिगम्बर) भी पतन का कारण बना।
- अशोक, कनिष्क के काल में बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार हुआ लेकिन जैन धर्म में ऐसा कोई महान नरेश नही हुआ। जैन धर्म का प्रचार-प्रसार करने के लिए अच्छे धर्म प्रचारकों का अभाव था।