- गुप्त साम्राज्य –
- मौर्य साम्राज्य के विघटन के बाद लम्बे समय तक उत्तर भारत एक शासन सूत्र के अन्तर्गत नहीं आ सका। कुषाणों एवं सातवाहनों ने कुछ हद तक स्थिरता लाने का प्रयास किया। किन्तु वे अपने ही क्षेत्रो मे ही सीमित रहे।
- चन्द्रगोमिन के व्याकरण नामक ग्रन्थ में गुप्तों को जर्ट अर्थात् जाट कहा है।
- गुप्तों की उत्पत्ति का प्रश्न प्राचीन भारतीय इतिहास का सर्वाधिक विवादवग्रस्त प्रश्न रहा है। कुछ इतिहासकार गुप्तो को कुषाणों के सामन्त मानते थे।
- वज्जिका द्वारा लिखित कीर्तिकौमुदी नाटक में लिच्छिवियों को म्लेच्छ तथा चन्द्रगुप्त प्रथम को कारस्कर कहा है।
गुप्त वंश का आरम्भिक राज्य बिहार व उत्तरप्रदेश को बताया जाता है। व गुप्तो के लिए उत्तरप्रदेश अधिक महत्व वाला प्रान्त था। - गुप्त वंशीय लोग धारण गोत्र के थे यह उल्लेख चन्द्रगुप्त द्वितीय की पुत्री प्रभावती गुप्ता ने पुना ताम्रपत्र मे किया है। यह गोत्र उसके पिता का ही था क्योंकि उसका पति वाकाटक नरेश रूद्रसेन द्वितीय विष्णु वृद्धि गोत्र का ब्राह्मण था।
- गुप्त वंशावली का परिचय देने के लिए अनेक अभिलेख है जिनमे है –
1. समुद्रगुप्त का प्रयाग प्रशस्ति अभिलेख
2. कुमार गुप्त का विलसड स्तम्भ लेख
3.स्कन्दगुप्त का भीतरी स्तम्भ लेख - अभिलेखीय साक्ष्यों के आधार पर गुप्तों के आदि पुरुष का नाम श्रीगुप्त था व उनको उत्तराधिकारी घटोत्कच था।
- गुप्तकाल में सबसे प्रथम शासक चन्द्रगुप्त प्रथम था जिसने महाराजधिराज की उपाधि ग्रहण की।
- गुप्तों की उत्पत्ति के बारे में विद्वानों के मत –
- विद्वान् – मत
- कशी प्रसाद जायसवाल – शुद्र
- गौरी शंकर ओझा, रमेशचन्द्र मजूमदार चट्टोपाध्याय – क्षत्रिय
- एलन, अल्तेकर, रोमिलाथापर – वैश्य
- हेमचन्द्र राय चौधरी – ब्राह्मण
-
प्रमुख गुप्त शासक
-
क्र.स.
शासक का नाम
शासन काल
1.
श्री गुप्त
240 से 280 ई.
2.
घटोत्कच
280 से 319 ई.
3.
चंद्रगुप्त प्रथम
319 से 335 ई.
4.
समुद्रगुप्त
335 से 375 ई.
5.
रामगुप्त
375 से 380 ई.
6.
चंद्रगुप्त द्वितीय
380 से 414 ई.
7.
कुमारगुप्त महेन्द्रादित्य
415 से 454 ई.
8.
स्कन्दगुप्त
455 से 467 ई.
9.
विष्णुगुप्त
540 से 550 ई.
-
चन्द्रगुप्त प्रथम (319-335 ई.)
- गुप्त वंश को एक साम्राज्य की प्रतिष्ठा चन्द्रगुप्त प्रथम् ने ही प्रदान की।
- गुप्त साम्राज्य का प्रथम स्वतंत्र शासक जिसने महाराजधिराज की उपाधि धारण की।
- इतिहास में गुप्त संवत या एक नये संवत चलाने का श्रेय चन्द्रगुप्त प्रथम को ही दिया जाता है।
- गुप्त संवत (319-20 ई. तथा शक संवत् (78 ई०) के बीच 241 वर्षो का अन्तर था।
- गुप्त साम्राज्य का विस्तार करने के लिए चन्द्रगुप्त ने वैवाहिक सम्बन्धों का प्रयोग किया।
- मुद्रा साक्ष्यों से स्पष्ट होता है कि चन्द्रगुप्त ने ही लिच्छवी राजकुमारी कुमारदेवी से विवाह किया था।
- रजत (चाँदी) की मुद्राओ का प्रचलन गुप्त वंश मे चन्द्रगुप्त के शासन काल मे हुआ।
- इसे गुप्त वंश का वास्तविक संस्थापक कहा जाता है।
-
समुद्रगुप्त (335-375 ई.)
- गुप्त साम्राज्य का सर्वाधिक विस्तार समुद्रगुप्त के शासन काल में हुआ।
- समुद्रगुप्त की विजयों का उल्लेख हरिषेण की प्रयाग प्रशस्ति मे मिलता है। व इस प्रशस्ति मे ही चन्द्रगुप्त प्रथम् द्वारा समुद्रगुप्त को उत्तराधिकारी चुने जाने का विवरण मिलता है।
- समुद्रगुप्त की दक्षिणापथ विजय को रायचौधरी ने धर्मविजय की संज्ञा प्रदान की है।
- समुद्रगुप्त प्रसन्न होने पर कुबेर तथा रुष्ट होने पर यमराज के समान था यह जानकारी एरण लेख मे मिलती है।
- प्रयाग प्रशस्ति के अनुसार समुद्रगुप्त की दिग्विजय का उद्देश्य धरणिबन्ध था व आर्यावर्त मे अपनाई गयी नीति को प्रसभोद्धरण व दक्षिणापथ में ग्रहणमोक्षानुग्रह कहा गया है।
- समुद्रगुप्त की उपाधियाँ – कविराज, वयाघ्र पराक्रमांक, सर्वराजोच्छेताक, धरणिबन्ध।
- विसेंट आर्थर स्मिथ ने इसे भारत का नेपोलियन कहा।
- समुद्रगुप्त विजेता के साथ कवि, संगीतज्ञ व विद्या का संरक्षक था उनके सिक्कों पर उन्हें वीणा बजाते हुए चित्रित किया है।
- समुद्रगुप्त के समय श्रीलंका के शासक मेधवर्मन ने अपना दूत समुद्रगुप्त के पास भेजा था तथा गया में बौद्ध मठ बनाने की अनुमति मांगी ।
- शक, कुषाण तथा मुरण्ड शासकों ने समुद्रगुप्त की अधीनता स्वीकार करते हुए तीन विधियाँ अपनाई
1.आत्मनिवेदन – सम्राट के सामने स्वयं दरबार में हाजिर होना।
2.कन्योपायन – अपनी पुत्रियों का गुप्त राजवंश मे विवाह करना।
3.गुरुत्मदंक – अपने विषय या भुक्ति के लिये शासनादेश प्राप्त करना। - समुद्रगुप्त ने अपनी विजयों के उपलक्ष्य मे अश्वमेध यज्ञ किया जिसकी जानकारी उसके सिक्कों तथा उत्तराधिकारियों के अभिलेखों से प्राप्त होती है।
- समुद्रगुप्त ने उत्तर भारत के नौ शासकों को पराजित किया उनके नाम निम्न प्रकार है –
- रुद्रदेव
- मत्तिल
- नागदत
- गणपतिनाग
- चन्द्रवर्मा
- नागसेन
- अच्युत
- बलवर्मा
- नन्दी
- इलाहाबाद स्तम्भ लेख में (प्रयाग प्रशस्ति) समुद्र गुप्त की धर्म प्रचार बन्धु उपाधि का उल्लेख मिलता है। प्रयाग प्रशस्ति के रचनाकार हरिषेण थे जब कि इसे स्तम्भ पर उत्कीर्ण तिलभट्ट ने कराया।
- समुद्रगुप्त ने दक्षिणापथ के बारह शासको को पराजित किया दक्षिणापथ नीति की तीन आधार शिलाएं –
1.ग्रहण – शत्रु पर अधिकार
2.मोक्ष – शत्रु को मुक्त करना
3.अनुग्रह – राज्य को लौटाकर शत्रु पर दया करना - समुद्रगुप्त के प्रचलित सिक्के –
- गरुड़
- धनुर्धारी
- परशु
- अश्वमेघ
- वीणा
- व्याघ्र हनन
- समुद्रगुप्त के सिक्कों मे उसे लिच्छवि दोहित्र कहा गया है।
- समुद्रगुप्त ने आर्यावर्त के प्रथम युद्ध में अच्युत, नामसेन, कोतकुलज नामक राजाओं को हराया।
- समुद्रगुप्त के लिए उत्तर-पश्चिम एवं उत्तर-पूर्व के सीमावर्ती राज्यों एवं गणतन्त्रीय राज्यों ने सर्वकरदान, आज्ञाकरण एवं प्रणामागमन के द्वारा सेवा की।
- समुद्रगुप्त द्वारा विजित दक्षिण के बारह राज्य व उनके राजा
राज्य | शासक | राज्य | शासक |
1.कौराल | मंतराज | 7.देवराष्ट्र | कुबेर |
2.महाकान्तार | व्याघ्र्राज | 8.वेंगी | हस्तीवर्मा |
3.कांची | विष्णुगोप | 9.कुस्थलपुर | धनंजय |
4.कोट्टुर | स्वामीदत्त | 10.पालक्क | उग्रसेन |
5.एरण्डपल्ल | दमन | 11.अवमुक्त | नीलराज |
6.कोसल | महेन्द्र | 12.पिष्टपुर | महेंद्रगिरी |
- समुद्रगुप्त की पश्चिमी व उत्तरी-पश्चिमी सीमा पर स्थित नौ गणराज्य
1.मालव | 4.आभीर | 7.खारपारिक |
2.मद्रक | 5.सनकानीक | 8.यौधेय |
3.आर्जुनायन | 6.काक | 9.प्रार्जुन |
-
चन्द्रगुप्त द्वितीय (380-412 ई.)
- समुद्रगुप्त एवं चन्द्रगुप्त द्वितीय के बीच रामगुप्त नामक एक दुर्बल शासक का उल्लेख मिलता है। बल्कि गुप्त अभिलेखों की वंशावली मे रामगुप्त का उल्लेख कहीं भी नही किया गया।
- सर्वप्रथम 1924 ई में राखालदास बनर्जी ने ही रामगुप्त की ऐतिहासिकता सिद्ध की।
- विशाखादत्त की रचित देवीचंन्द्रगुप्तम् में रामगुप्त की कथा का वर्णन है।
- चन्द्रगुप्त द्वितीय ने शक शासक रुद्रसिंह तृतीय को पराजित कर पश्चिमी भारत से शकों का उन्मूलन कर दिया। शक विजय के उपरान्त उसने चांदी के व्याघ्र सिक्के चलवाए तथा विक्रमादित्य की उपाधि धारण की। इन चाँदी के सिक्कों का भार 32 से 36 ग्रेन तक था।
- चन्द्रगुप्त द्वितीय के शासन काल में गुप्त साम्राज्य अपने उत्कर्ष की चोटी पर पहुँचा । चन्द्रगुप्त ने वैवाहिक सम्बन्ध और विजय दोनो रूपों से साम्राज्य का विस्तार किया।
- चन्द्रगुप्त द्वितीय की दिग्विजयों का उल्लेख उसके उदयगिरि गुहालेख से होता है।
- चन्द्रगुप्त द्वितीय के अन्य नाम – देवगुप्त, देवराज, देवकी था व इनकी अनेक उपाधियाँ थी जैसे – विक्रमांक, विक्रमादित्य, सिंह विक्रम, नरेन्द्रचन्द्र आदि।
- भारतीय अनुश्रुतियाँ उन्हें शकारि के रूप मे स्मरण करती है।
- गुप्त शासकों मे सर्वप्रथम चाँदी के सिक्के चलाने का श्रेय चन्द्रगुप्त द्वितीय को है । यद्यपि चन्द्रगुप्त प्रथम का भी एक चांदी का सिक्का प्राप्त हुआ है।
- चन्द्रगुप्त द्वितीय की दिग्विजयों का उल्लेख उसके उदयगिरि गुहालेख से होता है।
- चन्द्रगुप्त द्वितीय के समय में पाटलिपुत्र एवं उज्जैयिनी विद्या के प्रमुख केन्द्र थे। व उज्जैयिनी दुसरी राजधानी भी थी
- चन्द्रगुप्त द्वितीय ने नागवंश की राजकुमारी कुबेरनागा से विवाह किया व अपनी पुत्री प्रभावती गुप्ता का विवाह वाकाटक नरेश रुद्रसेन द्वितीय से किया। वाकाटक गठबन्धन ने पश्चिमी भारत में शकों को भगाया।
- चन्द्रगुप्त द्वितीय के दरबार ‘मे नौ विद्वानों’ की एक मण्डली निवास करती थी उन्हे नवरत्न के नाम से भी जाना जाता था जो निम्न प्रकार है –
- 1.वराहमिहिर
- 2.वररुचि
- 3.कालिदास
- 4.धन्वन्तरि
- 5. क्षपणक
- 6.अमरसिंह
- 7.घटकर्पर
- 8.शंकु
- 9.वेतालभट्ट
- गुप्त संवत का उपयोग सबसे पहले मथुरा लेख मे होता है जो चन्द्रगुप्त द्वितीय के शासन का प्रथम लेख है।
- चीनी यात्री फाह्यान (399 – 414 ई.) चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के समय मे आया। उसने अपने यात्रा के वृतान्तों में मध्यप्रदेश को ब्राह्मणों का देश कहा परन्तु सम्राट के नाम कहीं भी उल्लेख नहीं करता।
- चन्द्रगुप्त द्वारा चलाये गये सिक्के – धनुर्धारी छत्रधारी अश्वारोही पर्यंक
-
कुमारगुप्त महेन्द्रादित्य (415 – 454 ई.)
- चन्द्रगुप्त द्वितीय के उपरान्त कुमार गुप्त प्रथम शासक बना कुमारगुप्त के पूर्व एक और शासक का नाम आता है वह शासक ध्रुव देवी (रामगुप्त की पत्नी) का पुत्र गोविन्द गुप्त था।
- कुमार गुप्त के बारे मे जानकारी उसके बिलसड़ अभिलेख से होती है। व उनकी वंशावली के बारे मे भी पत्ता चलता है
सबसे अधिक अभिलेख गुप्त शासको मे कुमारगुप्त के मिले। - मध्य भारत में चांदी के सिक्को का प्रचलन उसी के काल मे हुआ। इन सिक्को पर गरूण के स्थान पर मयूर की आकृति उत्कीर्ण की गई है।
- स्कन्दगुप्त के भीतरी अभिलेख से पता चलता है कि कुमारगुप्त के अंतिम दिनों मे पुष्यमित्रों का आक्रमण हुआ। इससे निपटने के लिए उसने अपने पुत्र स्कन्दगुप्त को भेजा व पुष्यमित्रो को पराजय का सामना करना पड़ा।
- कुमारगुप्त के समय मैं नालन्दा विश्वविद्यालय की स्थापना हुई तथा इसे महायान बौद्ध धर्म का ऑक्सफोर्ड भी कहा गया है।
- कुमारगुप्त की अन्य उपाधियाँ महेंद्रादित्य, श्रीमहेंद्र, अश्वमहेंद्र आदि
- कुमारगुप्त के सिक्कों से ज्ञात होता है कि उसने अश्वमेघ यज्ञ भी किया।
- स्कन्दगुप्त के भितरी अभिलेख से पता चलता है कि कुमारगुप्त के अन्तिम दिनो मे पुष्यमित्तों का आक्रमण हुआ। स्कन्दगुप्त ने पुष्यमित्रों को पराजित किया।
- तुमैन अभिलेख (ग्वालियर M.P) मे कुमारगुप्त को शरदकालीन सूर्य की भांति बताया।
- कुमार गुप्त के अभिलेख – विलसड अभिलेख, गढ़वा अभिलेख, करमंदा अभिलेख, बेग्राम अभिलेख, धनदेह अभिलेख
-
स्कन्दगुप्त (455 – 467 ई.)
- हूणों का भारत पर आक्रमण स्कन्दगुप्त के शासन काल में हुआ जिसका उल्लेख जूनागढ़ अभिलेख मे मिलता है।
- स्कन्दगुप्त कुमारगुप्त प्रथम का पुत्र था उसने गिरनार स्थित सुदर्शन झील का पुनरुद्धार करवाया इस झील का निर्माण चन्द्रगुप्त मौर्य के गवर्नर पुष्यगुप्त वैश्य ने किया व पुनर्निर्माण सौराष्ट्र के गवर्नर पर्णदत्त के पुत्र चक्रपालित की देखरेख मे हुआ। इस झील के पास एक विष्णु मन्दिर का निर्माण करवाया।
- स्कन्दगुप्त को कहौम स्तम्भ लेख में ‘शक्रादित्य ‘आर्यमंजुश्री मूलकल्प मे देवराय व जूनागढ़: अभिलेख में श्रीपरिक्षिप्तवक्षा कहा है।
- स्कन्दगुप्त के काल में सोने के सिक्कों का वजन बढ़कर 144 से 146 ग्रेन तक हो गया।
- स्कन्दगुप्त में एक प्रतापी शासक के गुण थे। उसको खोने के बाद गुप्त साम्राज्य विघटन की ओर चलता गया।
- स्कंदगुप्त के उत्तराधिकारी- पुरुगुप्त, कुमारगुप्त द्वितीय आदि थे
- स्कन्द गुप्त की मुद्राएँ – धनुर्धर, बुल, राजा व लक्ष्मी, छत्र और गरुड़
-
गुप्त साम्राज्य के पतन का कारण –
- गुप्तों के पतन के कारणों मे हूणों का आक्रमण एक विशेष कारण रहा है।
- हूणों का प्रथम शासक तोरमाण था। कुवलयमाला नामक जैन ग्रन्थ में तोरमाण नामक शासक द्वारा चन्द्रभागा नदी के तट पर पब्बैया नामक स्थान पर शासन करने के बारे मे बताया गया।
- मंदसौर अभिलेख के अनुसार 532ई.के आसपास मालवा शासक यशोधर्मन ने मिहिरकुल को पराजित किया व उत्तर भारत मे विजय स्तम्भ का निर्माण करवाया।
- गुप्तों के पतन के साथ – साथ नये वंशो का उदय हुआ जो निम्न है – वलभी के मैत्रेय, कन्नौज के
मौखरी व थानेश्वर मे वर्धन वंश।
-
गुप्त साम्राज्य का प्रशासन –
- राजत्व का सिद्धांत गुप्त प्रशासन के तहत गुप्त सम्राटों ने परमभट्टारक, महाराजधिराज, परमेश्वर, परमदेवता उपाधियाँ धारण की।
- गुप्त अभिलेखों मे अप्रतिरथ की उपाधि समुद्रगुप्त और चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के लिए काम ली गई।
- गुप्त प्रशासन पूर्ण रूप से मौलिक नहीं था। उसमें मौर्यो, सातवाहनों, शकों तक तथा कुषाणों के प्रशासन की विधियो का समावेश था।
- गुप्तकालीन प्रशासन मे गुप्त शासक ही प्रशासन तथा न्याय का मुख्य स्त्रोत था। परंतु केन्द्रीय शासन का जो नियंत्रण मौर्य युग मे मिलता है वह इस युग में नहीं मिलता।
- गुप्त प्रशासन मे विकेन्द्रीकरण की प्रवृत्ति बढ़ने लगी।
- गुप्त साम्राज्य के सबसे बड़े अधिकारी कुमारामात्य होते थे उन्हें राजा उनके अपने ही प्रान्त में नियुक्त करता |
- 532 ई. के यशोवर्धन के अभिलेख में शासक को चारों वर्णो के हितो का रक्षक बताया।
- गुप्तकालीन प्रशासन मे निम्नांकित अधिकारियो की सूचना गुप्तकालीन अभिलेखो में मिलती है
अधिकारी | विभाग |
1. महाबलाधिकृत | सेना का सेनापत्ति |
2. महादण्डनायक | न्यायाधीश |
3. विनयस्थिति संस्थापक | शिक्षा अधिकारी |
4. भांडागाराधिकृत | राजकोष का अधिकारी |
5. सन्धि विग्रहिक | युद्ध व सन्धि के विषयों से सम्बन्धित |
6. दण्डपाशिक | पुलिस विभाग का सर्वोच्च अधिकारी |
7. महापक्षपटलिक | लेखा विभाग का सर्वोच्च अधिकारी |
8. युक्तपुरुष | युद्ध में प्राप्त व हस्तगत की गई सम्पत्ति का लेखा जोखा करने वाला अधिकारी |
9. महाप्रतिहार | राजप्रासाद से सम्बन्धित विषयों की देखरेख करने वाला अधिकारी |
-
गुप्तकालीन प्रशासन में प्रांतीय शासन –
- गुप्तकालीन प्रशासन के अंतर्गत साम्राज्य का विभाजन प्रान्तों मे जिसे भुक्ति कहा जाता था। इस पर उपरिक नामक शासक होता था ।
- गुप्तकालीन प्रशासन मे उपरिक के पद पर प्राय राजपरिवार से सम्बन्धी व्यक्ति को ही नियुक्त किया जाता था अन्य योग्य व्यक्तियो की नियुक्ति भी संभव थी।
- ग्राम एवं विषय के मध्य एक और इकाई के अस्तित्व का साक्ष्य मिलता है इसे पेठ कहा जाता था।
- ग्राम का सर्वोच्य अधिकारी ग्रामिक या महत्तर व नगर का प्रधान अधिकारी पुरपाल या द्रांगिक कहा जाता था।
- सीमान्त प्रदेशो के शासक गोप्ता कहलाते थे।
- राजा के पास स्थायी सेना थी । सेना के चार प्रमुख, अंग थे – पदाति, रथरोही, अश्वारोही तथा गज सेना
- पद्धति सेना की छोटी डुकड़ी को चमूय गज सेना के नायक को कटूक कहा जाता था अश्वारोही की सेना को अटाश्वपति कहा जाता था
-
गुप्तकालीन प्रशासन में राजस्व व्यवस्था –
- गुप्त काल पर राजस्व व्यवस्था के लिए सामान्यत भूमि पर सम्राट का अधिपत्य माना जाता था वह भूमि से उत्पादित उत्पादन का 1/6 भाग लेता था।
- इस प्रकार के कर को भाग कहा जाता था।
- गुप्तकालीन करो के कुछ नाम निम्न है –
1. भाग – उपब्ध का 1/6 भाग
2. उदंग – भूमिकर
3. भोग – राजा को प्रतिदिन दी जाने वाली फल-फूल की भेंट
4.उपरिकर – एक प्रकार का भूमिकर
5. शुल्क – ब्रिकी व सीमा की वस्तुओं पर लगने वाला कर
6. भूतावात प्रत्याय – विदेशी वस्तुओं के आयात पर लगने वाला कर
- गुप्तकाल मे करों की अदायगी दो रूपों मे की जाती थी।
हिरण्य (नकद) मेय (अन्न) - गुप्तकाल में भूमिकर संग्रह करने के लिए धुवाधिकरण तथा भूमि-आलेखों को सुरक्षित करने के लिए महाक्षपटलिक तथा कारणिक नामक अधिकारी होते थे।
- गुप्तकाल मे जो मंदिरों एवं ब्राह्मणों को भूमि दान में दी जाती थी उसे अग्रहार कहा जाता था।
- गुप्तकाल मे वाणिकों व शिल्पियों को (विष्ठि) व बेगार देना पड़ता था।
- गुप्तकाल के अन्तिम दिनों मे अपराधियों को दण्ड देने व झगड़ो में न्याय करने का अधिकार भी भूमिदान के साथ ब्राह्मणों तथा दानगृहीताओं को स्थानान्तरित किया जाने लगा।
-
गुप्त काल का आर्थिक जीवन –
- गुप्त काल में कृषि लोगों का मुख्य व्यवसाय था।
- स्कन्दगुप्त के जूनागढ़ अभिलेख से ज्ञात होता है कि अत्याधिक वर्षा के कारण सुदर्शन झील का पानी चारों और फैल गया था इस कारण वहां के लोगो के लिए दुर्भिक्ष की स्थिति उत्पन्न हुई। जूनागढ़ अभिलेख गुप्तकालीन सिंचाई का सर्वोत्तम उदाहरण है।
- बृहत्संहिता मे कहा गया कि कृषि अधिकांशत वर्षा पर निर्भर थी तथा तीन फसलों की जानकारी प्राप्त हुई।
- गुप्तकाल में आर्थिक उपयोगिता की दृष्टि से भूमि के कई प्रकार बताए है –
क्षेत्र – खेती के लिए उपयुक्त भूमि
खिल – जो भूमि जोती नहीं जाती थी
वास्तु – वास करने योग्य भूमि
अप्रहत – बिना जोती गई जंगली भूमि ।
चारागाह – पशुओं के चारा योग्य भूमि
- गुप्त काल मे सोने के सिक्को को दीनार कहा जाता था
- गुप्त कालीन स्वर्ण मुद्राओं पर राजाओ के स्पष्ठ चित्र अंकित होते थे। इन स्वर्ण मुद्राओ का प्रयोग भूमि की खरीद ब्रिकी में तथा सेना व प्रशासन के उच्च अधिकारियों को वेतन देने मे भी किया जाता था।
- गुप्त काल में फाह्यान के अनुसार साधारण जनता रोज वस्तु विनिमय व कौडियो से काम चलाते थे।
- गुप्तकाल में व्यापारियों की एक समिति होती थी जिसे निगम कहा जाता था। निगम का प्रधान श्रेष्ठि कहलाता था। व्यापारियों के समूह को सार्थ तथा उनके नेताओ को सार्थवाह कहा जाता था।
- गुप्तकाल मे वस्त्र निर्माण का प्रमुख उद्योग था। अमर कोश में बुनाई, हाथकरघा, कताई, धागे का उल्लेख मिलता है।
मंदसौर अभिलेख से ज्ञात होता है कि रेशम बुनकरों की श्रेणी ने एक विशाल सूर्य मंदिर का निर्माण कराया।
- गुप्तकाल में वैशाली तथा नालन्दा से श्रेणियों, सार्थवाहों प्रथम कुलिकों आदि की मुहरे शिल्पियों व व्यापारिक श्रेणियो के संगठन व गतिविधियों को प्रदर्शित करती है।
- गुप्त साम्राज्य के अलग-अलग भागों से सिक्को के 16 ढेर मिले हैं। जिनमे सबसे महत्वपूर्ण बयाना (भरतपुर) से मिले सिक्को के ढेर से है।
-
गुप्तकाल में सामाजिक जीवन –
- गुप्तकाल में समाज परम्परागत रूप से चार वर्णो में विभक्त था। चारों वर्णों का आधार गुण और कर्म पर आधारित न होकर जन्म पर था। समाज में ब्राह्मणो का स्थान सर्वोपरि था।
- न्याय संहिता में कहा गया है। कि ब्राह्मण की परीक्षा तुला से, क्षत्रियों की अग्नि से, वैश्य की जल से व शूद्र की विष से की जानी चाहिए।
- मानव गोत्र के मयुरशर्मन नामक ब्राह्मण ने काँची के पल्लव राजा के क्षेत्र पर अधिकार कर वनवासी को राजधानी बनाया तथा कदम्ब वंश के स्वतन्त्र राज्य की स्थापना की।
- मयूरशर्मन नामक ब्राह्मण ने अपनी विजयो के उपलक्ष्य में अठारह बार अश्वमेघ यज्ञ का अनुष्ठान किया।
- गुप्तकाल में शूद्रों की स्थिति में सुधार हुआ उन्हें महाभारत, रामायण व पुराण सुनने का अधिकार मिला वे कृष्ण नामक देवता की पूजा कर सकते थे व सातवीं सदी के आते-आते शूद्रों की पहचान कृषक के रूप मे होने लगी।
- गुप्तकाल की वर्ण व्यवस्था में चाण्डाल जाति का स्थान सबसे निम्न था। फाह्यान ने कहा कि वे गाँव से बाहर रहते थे तथा जब वे गाँव मे प्रवेश करते तब ढोल बजाते हुए चलते थे ताकि लोग उनसे दुर हो जाये चाण्डाल लोग मछली मारने व मांस बेचने का कार्य करते थे।
- मनु की दृष्टि से दस वर्षीय ब्राह्मण सौ वर्षीय क्षत्रिय से श्रेष्ठ था। ब्राह्मण एवं क्षत्रिय पिता व पुत्र तुल्य थे।
मार्कण्डेय पुराण में दान देना व यज्ञ करना शुद्र का कर्तव्य बताया। -
गुप्तकाल मे स्त्रियों की दशा
- गुप्तकाल के साहित्य एवं कला मे स्त्री का आदर्श रूपी चित्रण किया है। किन्तु व्यावहारिक रूप से इनकी स्थिति पहले की अपेक्षा दयनीय हो गई ।
- गुप्त काल मे स्त्री शिक्षा तो थी। अमरकोष में शिक्षिकाओं के लिए उपाध्याया, उपाध्यायीय व आचार्या शब्दो का प्रयोग किया।
दहेज प्रथा, प्रदा प्रथा व बालविवाह नहीं थे। - सती प्रथा का अभिलेखीय प्रमाण एरण अभिलेख मे गोपराज नामक सेनापति की स्त्री के सती होने का प्रमाण मिलता है
याज्ञवल्क्य स्मृति में पत्नी को भी पति की सम्पति का अधिकारी बताया है। - नारद के अनुसार जिस दम्पति के सन्तान न होती उसकी सम्पति राज्य को प्राप्त हो जानी चाहिए यद्यपि राजा का कर्तव्य बनता कि विधवा का पालन पोषण करें नारद ने इसे सनातन धर्म बताया।
- देवदासी प्रथा का उल्लेख पुराणो व मेघदूत मे मिलता है कलिदास ने उज्जैन के महाकाल मंदिर मे नृत्य करने वाली देवदासियों का वर्णन किया।
-
दास प्रथा
- दास मुक्ति के अनुष्ठान का विधान सबसे पहले नारद ने किया। नारद ने 15 प्रकार के दासों का उल्लेख किया व मनु ने 7 प्रकार के दासों का उल्लेख किया।
- गुप्तकाल में दास प्रथा पूर्वकाल से दयनीय हो गई। बंटवारे व धार्मिक अनुदानो के कारण भूमि छोटे-छोटे टुकडो मे विभाजित हुई। अत: छोटे कृषि क्षेत्रों मे अधिक दास रखने की आवश्यकता नही थी।
- कात्यायन स्त्रीधन के समर्थक थे । कात्यायन के अनुसार स्त्री अपनी अचल संपत्ति व स्त्रीधन को बेच या गिरवी रख सकती थी।
-
गुप्तकाल में धार्मिक दशा –
-
हिन्दू धर्म –
- गुप्तकाल ब्राह्मण धर्म का पुनरुत्थान काल माना जाता है। हिन्दू धर्म के पुनरुत्थान की प्रक्रिया गुप्त साम्राज्य की स्थापना से पूर्व ही आरम्भ हो गई थी गुप्त शासकों ने अग्निष्टोम, वाजपेय, वाजसनेय आदि यज्ञ किये।
- हिन्दू धर्म दो मुख्य संप्रदायो मे विकसित हुआ वैष्णव और शैव
-
वैष्णव धर्म –
- गुप्त राजाओं के काल मे वैष्णव धर्म विकसित रूप मे था। गुप्त राजाओ ने अपने सिक्को पर नाम के साथ परमभागवत विशेषण को प्रयोग मे लिया।
- स्कन्दगुप्त का जूनागढ़ अभिलेख व बुद्धगुप्त का एरण स्तम्भलेख विष्णु की स्तुति से प्रारम्भ होता है।
- नचनाकुठारा का पार्वती मन्दिर व भूमरा का शिव मंदिर गुप्तकाल ही के ही है।
- गुप्तकाल मे नारायण संकर्षण व लक्ष्मी जैसे अवैदिक देवताओ को वैष्णव धर्म का अभिन्न अंग बताया।
- कुमारगुप्त के मन्दसौर शिलालेख से सूर्य उपासना की जानकारी मिलती है।
- भगवतगीता में अवतारवाद का उपदेश गुप्तकालीन है
विष्णु के दस अवतार माने जाते हैं जो है – - मत्स्य कूर्म, वराह, नरसिंह, वामन, परशुराम, राम, कृष्ण, बुद्ध और कल्कि अवतार।
- गुप्तकाल में वैष्णव धर्म सम्बंधी सबसे महत्वपूर्ण अवशेष देवगढ़ का दशावतार मंदिर है इसका पूर्व नाम केशवपुर था यह
- मन्दिर पंचायतन श्रेणी का है इस मंदिर में शेषनाग की शैया पर विश्राम करते हुए नारायण विष्णु को दिखाया है।
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शैव धर्म –
- गुप्त सम्राट वैष्णव धर्म के अनुयायी थे परन्तु गुप्त शासको की धार्मिक सहिष्णुता की भावना से शैव धर्म का प्रचार- प्रसार हुआ।
- गुप्तकाल मे शैव धर्म के अन्तर्गत शिव व पार्वती की संयुक्त मूर्तियाँ बननी शुरू हुई।
- वामन पुराण मे शैव धर्म के अनेक सम्प्रदायों का विकास हुआ जिनकी संख्या चार थी
1शैव 2.कापालिक 3. पाशुपति 4. कालामुख - शैव धर्म में शिव पार्वती की संयुक्त मूर्तियाँ बननी शुरु हुई गुप्तकाल मे शैव मंदिरों का निर्माण हुआ जिनमे शिव की मूर्तियाँ दो प्रकार से बनाई जाती । 1.मानव आकार 2.लिंग के रूप में
कुमारगुप्त प्रथम के सिक्कों पर मयूर पर आरूढ कार्तिकेय की प्रतिमा है। इस काल मे शिव, सूर्य व बुद्ध आदि की उपासना को समान रूप से प्रोत्साहन प्राप्त हुआ।
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बौद्ध धर्म –
- गुप्त काल में बौद्ध धर्म स्वाभाविक रूप से विकसित हो रहा था। फाह्यान ने कहा कश्मीर, पंजाब व अफगनिस्तान बोद्ध धर्म के केन्द्र थे।
- गुप्त शासको की धार्मिक सहिष्णुता की नीति के कारण ब्राह्मण धर्म के साथ- साथ बौद्ध धर्म का भी विकास हुआ।
- गुप्तकाल में आर्यदेव, वसुबन्धु, असंग, मैत्रेयनाथ व दिग्नाग जैसे अनेक बोद्ध आचार्यों का आविर्भाव हुआ, जिन्होंने अपनी विद्वता के द्वारा भारतीय ज्ञान के विकास में योगदान दिया।
- बौद्ध धर्म की महायान शाखा के अंतर्गत माध्यमिक एवं योगाचार संप्रदाय का विकास हुआ। जिसमें योगाचार दर्शन का गुप्तों के समय अत्याधिक विकास हुआ।
- साँची के एक लेख से ज्ञात होता है कि आमृकादर्व नामक एक बौद्ध धर्म के अनुयायी को चंद्रगुप्त द्वितीय ने किसी उच्च पद पर नियुक्त किया जिसने काकनादबाट के महाविहार को पच्चीस दीनार दान दिया था।
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जैन धर्म –
- गुप्तकाल में ब्राह्मण व बौद्ध धर्म के साथ-साथ जैन धर्म का भी विकास हुआ। गुप्तकाल में जैन धर्म मे कोई परिवर्तन नही हुआ किंतु इसमें मूर्तियो का निर्माण प्रारंभ हुआ
- जैन धर्म के अन्तर्गत भगवान् महावीर एवं अन्य तीर्थकरों की सीधी खडी व पालथी मारकर बैठी हुई मूर्तियो क निर्माण किया गया।
- गुप्त काल मे मथुरा मे (313 ई.) व वल्लभी (453 ई.) जो जैनधर्म के केन्द्र थे वहाँ जैन सभाएँ आयोजित की गई। बल्लभी सभा का जैन आचार्य देवार्धि क्षमाश्रमण था।
- उत्तर भारत मे जैन धर्म को राजकीय समर्थन नही मिला परन्तु कदम्ब एवं गंग राजाओं ने इसे आश्रय प्रदान किया।
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गुप्तकाल में कला एवं साहित्य –
- कला एवं साहित्य की दृष्टि से गुप्तकाल को भारतीय इतिहास का स्वर्ण युग या क्लासिकी युग कहा गया।
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वास्तु कला –
- गुप्तकाल मे ही मंदिर निर्माण की कला का जन्म हुआ, देवगढ़ का दशावतार मंदिर भारतीय मंदिर निर्माण मे शिखर का संभवत पहला उदाहरण है।
- इस काल के मंदिरों के निर्माण में छोटी – छोटी ईटों तथा पत्थरों का प्रयोग किया जाता था।
- गुप्तकाल के गुहा मंदिरो में ब्राह्मण गुहा मंदिर व बौद्ध गुहा मंदिर महत्वपूर्ण है। ब्राह्मण गुहा मंदिरों का सर्वश्रेष्ठ मंदिर उदयगिरी का मंदिर है जिसे चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के सेनापति वीरसेन ने बनवाया। उदयगरी के गुहा मंदिरो मे विष्णु के वराह अवतार की विशाल मूर्ति स्थापित है।
- गुप्तकाल की कला एवं साहित्य के अन्तर्गत बाघ की गुफाएँ भी महत्वपूर्ण है। अजन्ता की गुफा संख्या 16,17 व 19 गुप्तकाल की ही मानी जाती है।
- गुप्तकाल ब्राह्मण एवं बौद्ध गुहा मंदिरों का भी निर्माण हुआ गुप्तकालीन मूर्तिकारों ने मथुरा शैली से प्रभावित होकर मूर्तियाँ बनाई।
- सुल्तान गंज से बुद्ध की साढ़े सात फिट ऊँची ताँबे की प्रतिमा मिली।
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गुप्तकालीन प्रमुख मंदिर
1.तिगवा का विष्णु मंदिर | मध्यप्रदेश |
2.नाचना कुठार का पार्वती मंदिर | मध्यप्रदेश |
3.भूमरा का शिव मंदिर | मध्यप्रदेश |
4.सिरपुर का लक्षमण मन्दिर | छत्तीसगढ़ |
5.भीतर गांव का लक्ष्मण मन्दिर | उत्तरप्रदेश |
6.देवगढ़ का दशावतार मन्दिर | उत्तरप्रदेश |
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गुप्त काल में मूर्तिकला एवं चित्रकला –
- गुप्तकाल मे मूर्तिकला एवं चित्रकला भी विकसित रूप मे थी गुप्तकाल के चित्रों के अवशेषों मे बाघ की गुफाएँ, अजन्ता की गुफाएँ व बदामी की गुफाओं को देखा जाता है।
- गंगा और यमुना की मूर्तिरूप गुप्तकाल की ही देन है।
- वराह की वास्तविक आकृति मे निर्मित मूर्ति एरण से प्राप्त हुई जिसका निर्माण धन्यवष्णु ने किया।
- कुषाण कालीन मूर्तियो में शरीर के सौन्दर्य पर बल दिया गया उसके विपरीत गुप्तकाल की मूर्तियो मे यह देखने को नहीं मिलता।
- अजन्ता के चित्र मुख्यत: धार्मिक विषयो पर आधारित है।
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गुप्त कालीन साहित्य –
- गुप्तकाल में साहित्य का स्तर भी उच्च था। पुराणो का जो रूप हमें अब प्राप्त होता है वह गुप्तकाल की ही देन है।
- रामायण व महाभारत को अन्तिम रूप गुप्त काल मे ही प्राप्त हुआ।
- गुप्तकाल में नारद, कात्यायन, पाराशर व बृहस्पति स्मृति की रचना हुई। जिनमें नारद व बृहस्पति स्मृति विधि विषयक प्रधान है जबकि कात्यायन स्मृति आर्थिक विषयो पर लिखी गई।
- कालिदास के तीन नाटक विक्रमोर्वशीय, मालविकाग्निमित्र और अभिज्ञान शाकुन्तलम गुप्तकाल की सर्वश्रेष्ट रचना है।
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गुप्त कालीन विज्ञान –
- गुप्तकाल मे ही शून्य का सिद्धान्त तथा दशमलव प्रणाली का विकास हुआ।
- धन्वंतरि नामक आयुर्वेद का चिकित्सक चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के दरबार मे था।
- आर्यभट्ट ने सर्वप्रथम शून्यवाद के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया और कहा पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती हुई सूर्य के चारो और चक्कर लगाती है।
- आर्यभट्ट ने चन्द्रग्रहण व सूर्यग्रहण की व्याख्या की, त्रिभुज का क्षेत्रफल निकालने का सूत्र दिया व पाई का माप दिया जो आज भी सही माना जाता है।
- वराहमिहिर ने खगोल शास्त्र व ज्योतिष विद्या पर अनेक ग्रन्थ लिखे जिनमे पंचसिद्धान्तिका, लघुजातक, बृहज्जातक तथा बृहत्संहिता प्रमुख है।
- भाष्कर प्रथम ने महाभास्कर्य व लघुभास्कर्य भाष्य लिखे।